माँ गंगा पर धारा छन्द


(1)
कैसा आज पतन का दौर,सुधार करो मात गंगा।
मन सबके हैं कपटी आज,कर दो सब कुछ अब चंगा।।
गुंजित शुभ का मधुरम गान,लाज रखो गंगा मैया।
तू ही तो आज परमधाम,तू ही बस एक खिवैया।।
(2)
 बढ़ते जाते हैं नित पाप ,कलियुग में है गंग सहारा।
हे! मैया तू रख सिर हाथ,तेरा यह सुत है हारा।।
ममता,करुणा का संसार,तेरे शरणागत सारे।
तू तो है मात दयापुंज,तेरी जय के हैं नारे।।
(3)
कल कल सुर नित करे विभोर,गंगा का मान  सदा से ।
पुरखों का सुतर्पण निनाद,खुश हो गये सब  विदा से।।
कहें वेद औ' सभी पुराण,गंगनीर गति भवपारा।
जीवन पाये नित उत्थान,हर इक जीता नहिं हारा।।
(4)
लेकर वेग बहे जलधार,माँ तेरा प्यारा नाता।
शरण गया जो भी हे! मात,वही नित आरती गाता।।
जय हो जय हो जय का गान,भगीरथ का श्रम लुभाया।
धरती बन गई भाग्यवान,हर तट ने पुण्य कमाया।।
(5)
सभी जीव जीवन का सार,ग्रहण करने नित नहाते।
दूर दूर से अनगिन भक्त ,पुण्यजनित लाभ उठाते।।
मंगलभाव तो प्रवहमान,साँच सुगरिमा नित गाती ।
माता गंगा बहकर रोज़,वसुधा को मान दिलाती।।
(6)
सुरसरि कहते,पावन नीर,जीवन का सतत सहारा।
गति-मति प्राणी पाकर मस्त,नहिं कभी किसी वो हारा।।
हो जाते सारे दुख दूर,हर पल तो निर्भय हो जाता।
है गंगा का प्रखर सुताप,मन सुख से ही भर गाता।।
(7)
गंगा-महिमा से अति प्यार,नित ही बहती है धारा।
निर्मलता का है यशगान,है गंगा का जयकारा।।
मनोकामना करती पूर्ण,न कभी निराश है कोई।
जीवन होता मंगलगान,न कोई आँख है रोई।।













  शरद नारायण खरे
         मंडला 

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