ताज्जुब की बात है 21वीं सदी का पढ़ा लिखा, अंग्रेजी झाड़ने वाला, आधुनिक समाज एक औरत की खुशी बर्दाश्त नहीं कर सकता। क्या विधवा हो जाने के बाद, या डिवोर्स हो जाने के बाद स्त्री को खुश रहने का कोई हक नहीं, अपनी ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जीने का अधिकार नहीं? समाज की घिनौनी और दकियानुसी मानसिकता के अनुसार ही जीना होगा। कितना दोगला है ये समाज एक तरफ़ स्त्री सशक्तिकरण के राग आलाप रहा है और एक तरफ़ अगर कोई स्त्री चुटकी भर खुश रहकर गम को भुलाने की कोशिश करते जी रही है तो उसे ढ़ेरों बातें सुनाकर व्यंग्य बाण छोड़ने से नहीं चुकता।
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