किसी भी प्रदेश के लिए कला और संस्कृति अमूल्य धरोहर होता है। ऐसे में बिहार के भू - भाग पर फला-फुला मौर्य कला के अनुपम विशेषताएं आज भी हर वर्ग के लोगों को रोमांचित कर देती है। स्वाभाविक रूप में स्तूपों, महलों, पेंटिंग्स को देख कर किसी का भी हृदय उस साम्रज्य के शानो शौकत केअनुमान से भाव विभोर हो जाता हूं।
सम्राट अशोक के द्वारा अपने संदेशो को प्रचारित करने हेतु इन स्तम्भो का बहुतायत में कई स्थानों पर लगवाया गया। इनमे से कुछ ही प्राप्त हो पाए हैं।ये हैं:-
* जिनपर धम्म लिपियाँ खुदी हुई हैं।
* सादे स्तम्भ।।
दिल्ली-मेरठ, दिल्ली-टोपरा, इलाहबाद, लौरियानन्दनगढ़, लौरिया अरेराज , रामपुरवा, सांची, सारनाथ, लुम्बिनी आदि अशोक द्वारा धम्म घोषणा हेतु लगवाए गए थे। इन स्तम्भो की सबसे बड़ी विशेषता चमकदार, लम्बे, सुडौल होना। ये एकाश्म होते थे। स्तम्भ के मुख्य भाग थे
*यष्टि
*शीर्ष-इस पर अधोमुख कमलाकृति, फलक, पशुआकृति। हंस, सिंह, हाथी, बैल के आकृति मुख्य थे।जैसे कि सारनाथ में सिंह का है जो कि भारत का राजकीय चिन्ह भी है।सात फुट लम्बे, चार सिंह आपस में विपरीत दिशा में जुड़े साक्षात न्याय के प्रतीक से दिखते हैं।
स्तूप-
महात्मा बुद्ध के अस्थियों पर बना गुम्बदनुमा आकृति स्तूप था। अशोक द्वारा लगभग 84 हजार स्तूपों का निर्माण का उल्लेख मिलता है। परंतु आज कुछ ही हैं। साँची, भरहुत, धर्मराजिका आदि।
पाषाण वेदिका:-
स्तूप और विहार पाषाण वेदिका से घिरे होते थे।बोधगया, सारनाथ, पटना से ऐसे वेदिकाओं के अवशेष मिले हैं।
गुहा विहार:-
गया के बराबर पहाड़ी में आज भी ये गुहा देखने को मिल जाएंगी। ये गुहा पहाड़ी को ही काट कर बनाया जाता था। इसमे बौद्ध भिक्षु निवास करते थे।बराबर पहाड़ी में सुदामा गुफा, कर्ण गुफा, चौपड़ गुफा, लोमस ऋषि के गुफा काफी प्रसिद्ध हैं।
मूर्तिकला:-
मूर्ति कला भी दो रूपों में थी। एक तो स्तूपों पर ,दूसरा स्वतन्त्र रूप में। जैसे दीदारगंज चमर्ग्रहिनी , जैन तीर्थंकर की मूर्ति।
चित्र कला-
इसमें मृदभांडों पर पालिश, साहित्य सजावट, राजप्रासादों पर सजावट, वस्त्र सजावट, शस्त्रों के मुठ पर कलाकृति , शाही बर्तनों व वस्तुओं पर कलाकृति आदि।
लोक कला
नगर का आम लोगो द्वारा अपनाए गए कला स्वरूप ही लोक कला कहे गए।जैसे पटना में रखे यक्ष यक्षिणी की प्रतिमा, विभिन्न पशु -पक्षी , मोर, तोता, नर-नारी के मृण्मूर्ति आदि । ये अवशेष सारनाथ, हस्तिनापुर, कौशाम्बी, कुम्हरार आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं।
मौर्य काल के उपरोक्त शैली और अवशेष निश्च्य हीं गर्वानुभूति है। पर अन्य कई प्रतिकृति के नष्ट हो जाने, आमजन कला के अधिक विकसित न हो पाने या संग्रह न हो पाने की पीड़ा एक कलाप्रेमी के लिए बना रहेगा।
मौर्य कला के उपरोक्त उल्लेख से ये अवश्य स्पष्ट होता है कि कला चाहे कोई भी हो ये हमेशा ही अपने सभ्यता और संस्कृति को सींचता है, आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। अपने और अपने लोगों से प्रेम करने को एक माध्यम देता है।
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