विजयादशमी के दोहे

विजयादशमी पर्व है,अहंकार की हार।
 नीति,सत्य अरु धर्म से,पलता है उजियार।।

मर्यादा का आचरण,करे विजय-उदघोष।
कितना भी सामर्थ्य पर,खोना ना तुम होश।।

लंकापति मद में भरा,करता था अभिमान।
तभी हुआ सम्पूर्ण कुल,का देखो अवसान।।

विजयादशमी पर्व नित,देता यह संदेश।
विनत भाव से जो रहे,उसका सारा देश।।

निज गरिमा को त्यागकर,रावण बना असंत।
इसीलिए असमय हुआ,उस पापी का अंत।।

पुतला रावण का नहीं,जलता पाप-अधर्म।
समझ-बूझ लें आप सब,यही पर्व का मर्म।।

विजय राम की कह रही,सम्मानित हर नार।
नारी के सम्मान से,ही जग में उजियार।।

उजियारा सबने किया,हुई राम की जीत।
आओ हम गरिमा रखें,बनें सत्य के मीत।।

कहे दशहरा मारना,अंतर का अँधियार।
भीतर जो रावण रहे,उसको देना मार।।

अहंकार ना पोसना,वरना तय अवसान ।
निरभिमान की भावना,लाती है उत्थान।। 


प्रो.(डॉ)शरद नारायण खरे 



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